Monday 1 October 2018

कामयाब और क़ाबिल लोगों के मन में क्या डर होते हैं

"ऐसा लगता है कि मुझे बार-बार ये साबित करने की ज़रूरत है कि मैं जहाँ पर हूँ वहाँ मैं क्यों हूँ. हर मीटिंग में जाने से पहले मुझे ऐसा ही लगता है. क्या आज मेरी मूर्खता साबित हो जाएगी? क्या आज लोग एक मुखौटे के आर-पार देख लेंगे कि असल में इस बंदे में कोई जान नहीं है?"
ये कहना है जेरेमी न्यूमैन का जो हाल तक बीडीओ कंपनी के ग्लोबल सीईओ थे. ये कंपनी दुनिया की सबसे बड़ी अकाउंटिंग फर्म्स में से एक है.
न्यूमैन ने कई महत्वपूर्ण सरकारी विभागों को भी संभाला है. वे कई दूसरे संगठनों के भी प्रमुख रहे हैं.
पेशेवर रूप में किसी भी पैमाने पर वो बहुत सफल कहे जा सकते हैं. लेकिन निजी बातचीत में वे कहते हैं कि उन्हें हमेशा यही लगता है कि वे इतने क़ाबिल नहीं हैं.
न्यूमैन ऐसे अकेले नहीं हैं. लॉ एंड अकाउंटिंग फर्म्स, कंसल्टेंसी और इन्वेस्टमेंट बैंकिंग के फ़ील्ड में 25 साल की रिसर्च के दौरान मैंने ऐसे कई होनहार, कामयाब और आत्मविश्वास से भरे दिखने वाले लोगों के बारे में सुना है जो ख़ुद को असुरक्षित बताते हैं. वे क़ाबिल, सक्षम और महत्वाकांक्षी हैं और अपनी कमियों के सहारे आगे बढ़ रहे हैं.
अपनी नई क़िताब 'लीडिंग प्रोफ़ेशनल्सः पावर, पॉलिटिक्स एंड प्राइमा डोनास' में जब मैंने ऐसे लोगों के बारे में लिखा तो मुझे दुनिया भर से रिस्पॉन्स मिले.
अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों ने कहा कि वे भी ऐसे ही हैं. डरे हुए कामयाब लोग पैदा नहीं होते, वे वक़्त के साथ ऐसे बन जाते हैं.
इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है. मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और शारीरिक असुरक्षा की भावना उन्हें ऐसा बनाती है.
जिन बच्चों ने आकस्मिक और अप्रत्याशित ग़रीबी देखी है, वे इससे कभी उबर नहीं पाते. बड़े होने पर वे इतना कमा सकते हैं कि फिर ग़रीबी नहीं देखनी पड़ेगी, ऐसा विश्वास वे कर ही नहीं पाते.
कुछ बच्चों को लगता है कि उनके माता-पिता उनकी तरफ़ तभी ध्यान देते हैं, जब वे बहुत अच्छा रिजल्ट लाते हैं.
उनकी ये सोच घर छोड़ने के सालों बाद तक बनी रहती है. असुरक्षा की ये भावना उनकी पहचान से जुड़ जाती है.
ऐसे लोग टॉप की कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन करते हैं. वे उन कंपनियों को चुनते हैं, जहाँ काम करना दुनिया भर के एमबीए ग्रैजुएट्स का सपना होता है.
ऐसे फ़र्म्स अपने नये कर्मचारियों को बताते हैं कि हम इस बिज़नेस में सर्वश्रेष्ठ हैं. चूंकि आप भी हमारे साथ काम करते हैं इसलिए आप भी श्रेष्ठ हैं.
जिन लोगों को अपनी क्षमता पर भरोसा नहीं होता, वे ख़ुशी से भर जाते हैं. लेकिन जल्द ही वे इस आशंका से घिर जाते हैं कि यदि वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, तो उनको निकाल दिया जाएगा.
ऐसी कंपनियों में मूल्यांकन और ईनाम की व्यवस्था इनके डर को ज़िंदा रखती है. यहाँ तरक्की के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा होती है और प्रमोशन कैसे मिलता है, ये स्पष्ट नहीं होता.
पेनसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी की डॉक्टर अलेक्जांड्रा मिचेल ने इन्वेस्टमेंट बैंकर्स के जीवन और करियर पर बड़ी रिसर्च की है.
वो कहती हैं, "साल के अंत में आपको मिलने वाला ईनाम दूसरों के बरक्स आपके मूल्यांकन पर निर्भर करता है. आपको पता नहीं होता कि वे क्या काम कर रहे हैं. आपको बस इतना पता होता है कि वे सुपर स्मार्ट हैं और गाढ़ी मेहनत कर रहे हैं."
कर्मचारियों को पता होता है कि उनके काम को सहकर्मियों के बनिस्पत आंका जाएगा. चूंकि उन्हें ये पता नहीं होता कि उनके सहकर्मी असल में क्या कर रहे हैं, इसलिए वे अपने लिए बहुत ऊंचा मानक तय कर लेते हैं जिससे कोई कसर ना रह जाए.
चूंकि इस व्यवस्था में सभी लोग ऐसा ही करते हैं, इसलिए ये पैमाना ऊंचे से और ऊंचा होता जाता है.
शोध के दौरान एक कंसल्टिंग फ़र्म के सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव ने अपने दो सहकर्मियों के बारे में बताया जो काम तो अच्छा करते थे, मगर हमेशा इस आशंका में रहते थे कि उन्हें ख़राब परफ़ॉर्मेंस के लिए झिड़की मिलेगी और नौकरी छोड़ने को कहा जाएगा.
जब उनके बॉस उन्हें जल्दी घर जाने और परिवार को समय देने को कहते तो उनका जवाब होता, "नहीं नहीं, मुझे काम करना है."
जूनियर लेवल के कर्मचारी जब अपने सीनियर को ऐसे काम करते हुए देखते हैं तो उनको लगता है कि तरक्की पाने का यही एक तरीक़ा है. इस तरह यह पैटर्न दोहराया जाता है.
ग्लोबल लॉ फ़र्म 'एलेन एंड ओवरी' के सीनियर पार्टनर रह चुके डेविड मोर्ली सीनियर वक़ीलों को सर्कस के रिंगमास्टर की तरह बताते हैं.
मोर्ली कहते हैं, "यदि आपका काम अच्छा है और आप अपने काम को इंज्वॉय करते हैं तो आप तरक्की करते जाएंगे. आप लंबा-चौड़ा बिल बनाएंगे जिनको आपके क्लाएंट चुकाएंगे. फिर आपके फ़ोन की घंटी बजेगी और आप अगले काम में लग जाएंगे. यह एक नशे की तरह है."
सब कुछ इतना पॉजिटिव नहीं है. लंबे समय तक काम करते रहने और लगातार आगे रहने की होड़ से शारीरिक और मानसिक सेहत को नुकसान होता है.
थकान, दर्द, लत, भोजन संबंधी विकार और किसी का अवसाद का शिकार हो जाना बेहद सामान्य बात है.
तो अगर आप भी क़ाबिल होकर असुरक्षित महसूस करते हैं तो क्या करना चाहिए?
असुरक्षा की भावना को पैदा करने वाले कारक बचपन से जुड़े होते हैं, इसलिए अब उनमें बदलाव नहीं किया जा सकता.
फिर भी आप अपनी प्रतिक्रिया को बदल सकते हैं.
  • सबसे पहले उस चीज़ को पहचानिये जो आपको बेचैन करती है. आपका संगठन आपके व्यवहार का किस तरह दोहन करता है और आप उस पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, उसकी पहचान कीजिए.
  • अपने उन सहकर्मियों की भी पहचान कर लीजिए जो अपनी टिप्पणियों और काम से आपको चिड़चिड़ा बनाते हैं.
  • ज़रूरत पड़े तो अपने मनोवैज्ञानिक कवच को मज़बूत करने को तैयार रहिए.
  • दूसरी बात, आपकी क़ामयाबी क्या है इसे ख़ुद तय कीजिए. दूसरों को इसे तय करने का अधिकार मत दीजिए.
  • यदि आप अपना तन-मन अपने काम को समर्पित करना चाहते हैं तो ऐसा काम चुनिये, जहाँ आपके सफल होने और अपने काम को इंज्वॉय करने की पूरी संभावना हो.
  • ऐसी नौकरी में मत लगे रहिये जो आपके लिए नहीं है. जिस काम में आपका मन ना लग रहा हो, उसे छोड़ देना नाकाम होने की निशानी नहीं है, बल्कि ये अच्छी समझ और परिपक्वता की निशानी है.
  • तीसरी बात, अपनी कामयाबी को सेलिब्रेट कीजिये. कोई लक्ष्य पा लेने पर उसे तुरंत मत भुला दीजिये. ना ही अपने लक्ष्य को तुरंत और बड़ा कर लीजिए.
  • अगर आपने कुछ हासिल कर लिया है तो याद कीजिए कि आप असफल होने के डर से कितने चिंतित थे.
  • उन चिंताओं के बीच भी आपको सफलता मिल रही है तो क़ामयाबी के इन सबूतों पर विश्वास करना सीखिए.

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