Wednesday 2 January 2019

रूस में -17 डिग्री तापमान के बीच मलबे से ज़िंदा मिला 11 महीने का बच्चा

रूस के माग्नितोगोर्स्क शहर में इस समय दिन में तापमान शून्य से 17 डिग्री सेल्सियस तक नीचे पहुंच रहा है.
सोमवार को यहां गैस धमाके में धराशाई हुए एक अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स के मलबे से ज़िंदा लोगों की तलाश में जुटे बचावदल के लिए हालात बेहद मुश्किल हैं.
इन मुश्किल हालात के बीच मंगलवार को यहां से एक राहत भरी ख़बर आई है.
बचाव दल ने 11 महीने के एक बच्चे को मलबे से ज़िंदा निकाला है.
स्थानीय मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक बचाव दल ने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनने के बाद उसे सुरक्षित बाहर निकाला.
इवान गंभीर शीतदंश के शिकार हैं और उनके सिर में चोट आई है. हाथों और पैरों में फ्रेक्चर भी है.
रूस के आपातकाल मंत्रालय के मुताबिक इवान की मां सुरक्षित हैं और उन्होंने अस्पताल में अपने बेटे से मुलाक़ात की है.
घातक सर्दी और ख़राब मौसम ने बचाव दल के लिए हालात
पिछले कुछ सालों में इन सवालों पर होने वाली बहस और गरमा गई है.
हिंदू दक्षिणपंथी मानते हैं कि भारतीय सभ्यता उनसे निकली है, जो ख़ुद को आर्य कहते थे. यह घुड़सवारी करने वाले और पशुपालन करने वाले योद्धाओं और चरवाहों की एक घुमंतू जनजाति थी जिन्होंने हिंदू धर्म के सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों यानी वेदों की रचना की थी.
वे कहते हैं कि आर्य भारत से निकले और फिर एशिया और यूरोप के बड़े हिस्सों में फैल गए. इसी से उन इंडो-यूरोपियन भाषाओं का विस्तार हुआ जो आज यूरोप और भारत में बोली जाती हैं.
एडोल्फ़ हिटलर और मानव जाति के इतिहास का अध्ययन करने वाले यूरोप के कई लोग 19वीं सदी में यह मानते थे कि आर्य ही वह मुख्य नस्ल थी जिसने यूरोप को जीता. लेकिन एडोल्फ़ हिटलर का मानना था कि आर्य नॉर्डिक थे यानी वे उत्तरी यूरोप से निकले थे.
बेहद मुश्किल कर दिए हैं.
रात में तापमान और अधिक नीचे गिर सकता है. ऐसे में बचाव दल के पास समय बेहद कम है.
सोमवार देर रात हुए गैस धमाके में एक रिहायशी अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स पूरी तरह धराशाई हो गया था.
इस कॉम्प्लेक्स में कुल 120 लोग रहते थे. राजधानी से क़रीब 1695 किलोमीटर दूर स्थित मेग्नीटोगोर्स्क में हुए इस हादसे की आपराधिक जांच शुरू कर दी गई है.
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जब भी जानकार लोग आर्य शब्द इस्तेमाल करते हैं, इसका मतलब उन लोगों से होता है जो इंडो-यूरोपियन भाषाएं बोलते थे और ख़ुद को आर्य कहते थे. ऐसे में मैंने भी इस लेख में 'आर्य' को इसी संदर्भ में इस्तेमाल किया है. यह किसी नस्ल के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है, जैसे कि हिटलर ने इसे इस्तेमाल किया या फिर कुछ हिंदू दक्षिणपंथी इसे इस्तेमाल करते हैं.
भारत के बहुत सारे विद्वानों ने 'भारत के बाहर से आने वाली' बात पर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि ये इंडो-यूरोपीय भाषा बोलने वाले या आर्य शायद उन प्रागैतिहासिक ख़ानाबदोशों में से थे, जो पहले की किसी सभ्यता के कमज़ोर होने के बाद भारत आए थे.
यह हड़प्पा (या सिंधु घाटी) सभ्यता थी जो आज भारत के उत्तर-पश्चिम और पाकिस्तान में है. यह सभ्यता लगभग मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के समय ही पनपी थी.
हालांकि, हिंदू दक्षिण पंथी मानते हैं कि हड़प्पा सभ्यता ही आर्यन या वैदिक सभ्यता थी.
इन विरोधाभासी विचारों का समर्थन करने वाले दो समूहों के बीच का तनाव हाल के कुछ सालों में बढ़ा है, ख़ासकर 2014 में हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद.
इस पुराने विवाद में अब पॉप्युलेशन जेनेटिक्स का अध्ययन विषय जुड़ गया है जो अपेक्षाकृत नया है. इसमें प्राचीन डीएनए के माध्यम से पता लगाया जाता है कि कब लोग कहां गए.
प्राचीन डीएनए के माध्यम से किए जाने वाले शोध ने पूरी दुनिया में इतिहास का पुर्नलेखन किया है. भारत में भी अब एक के बाद एक रोमांचक जानकारियां सामने आ रही हैं.
इस विषय पर सबसे ताज़ा अध्ययन जेनेटिसिस्ट (आनुवांशिकी विज्ञानी) हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के डेविड रेक ने किया है. मार्च 2018 में छपे इस शोध में पूरी दुनिया के 92 विद्वान सह-लेखक हैं. इनमें से कई नाम ऐसे हैं जो जेनेटिक्स, इतिहास, पुरातत्व और मानव-शास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान हैं.
पहले तो दक्षिण-पश्चिम ईरान के ज़ैग्रोस प्रांत से बड़े पैमाने पर लोग भारत में आए. इनमें कृषक और संभवत: पशुपालक भी थे. ज़ैग्रोस वही इलाक़ा है, जहां इंसान द्वारा पहली बार बकरी को पालतू बनाने के सबूत मिले हैं.
यह 7,000 से 3,000 ईसा पूर्व के बीच हुआ होगा. इन ज़ैग्रोसयाई पशुपालकों का भारतीय उपमहाद्वीप पर पहले से रह रहे लोगों के साथ मिश्रण हुआ. यहां पर पहले से रहने वाले लोग जिन्हें आप शुरुआती भारतीय या फर्स्ट इंडियंस कह सकते हैं, वे 65000 साल पहले एकसाथ अफ़्रीका से भारत आए थे. इन्हें आउट ऑफ़ अफ़्रीका या OoA माइग्रेंट कहा जाता है. तो इस तरह इन दोनों ने मिलकर हड़प्पा सभ्यता बसाई.
2000 ईसा पूर्व की शताब्दियों में यूरेज़ियन स्टेपी (घास के मैदानों) से प्रवासियों का दूसरा जत्था आया. संभवत: वे उस हिस्से से आए थे, जिसे आज कज़ाख़स्तान कहा जाता है.
इस बात की संभावना है कि यही लोग संस्कृत का शुरुआती प्रारूप अपने साथ लाए. वे घुड़सवारी करना और बलि परंपरा जैसे नई सांस्कृतिक तौर-तरीक़े भी अपने साथ लाए. इसी से हिंदू/वैदिक संस्कृति का आधार बना. (एक हज़ार साल पहले यूरोप में भी स्टेपी से लोग गए थे जिन्होंने वहां के खेतिहरों की जगह ली थी या उनके साथ मिश्रित हो गए. इसी से नई संस्कृतियां उभरी थीं और इंडो-यूरोपीय भाषाओं का विस्तार हुआ था.)
अन्य जेनेटिक शोध भी भारत में बाहर से लोगों के आने पर रोशनी डालते हैं. जैसे कि इससे यह भी पता चलता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया से आए दक्षिण ऑस्ट्रियाई-एशियाई भाषाएं बोलने वाले कब आए थे.